शनिवार, 11 मई 2024

सांडे का तेल

क्या है सांडे के तेल की हकीकत... आठवीं पास करके जब इंटर कॉलेज में एडमीशन हुआ। तो एकदम नई दुनिया खुल गई। साइकिल से लगभग चार किलोमीटर दूर स्थित इंटर कॉलेज जाने लगा। रास्ते में तमाम दुनिया के नजारे इंतजार करते बैठे रहते। ऐसी एक स्मृति सड़क के किनारे लगे मजमे की भी है। इसमें एक आदमी कई सारी बड़ी छिपकलियों को एक दरी पर बिछाकर और उनमें से कुछ को बर्तन में भूनते हुए दिखता। इसे ही वो सांडे का तेल कहता। इस सांडे के तेल की तमाम महिमा का बखान करके वह बेचता। उसकी जुबान बंद नहीं होती। वो लगातार बोलता रहता और तेल से भरी हुई शीशी को बेचता भी रहता। बाद में कभी जब उस सांडे की असली कहानी के बारे में पता चला तो मन जाने कितनी वितृष्णाओं से भर गया। आप भी जानिए सांडे के बारे में। नीचे लिखे शब्द, पंक्तियां और जानकारी सभी कुछ वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफर और वाइल्ड लाइफ एक्सपर्ट अरविंद यादव के हैं। उनसे साभार लेकर आपके साथ साझा कर रहा हूं।------ आइए आज बात करते हैं एक एसे सुन्दर, शान्त, विषहीन, निरीह, किसान हितैषी और क्षतिशून्य प्राणी की जो बलि चढ़ गया मनुष्यों की कामोत्तेजना बढ़ाने की अंतहीन लालसा की। यह जीव है साण्डा। नाम भ्रमित करता है परन्तु यह एक मध्यम आकार की छिपकली है जो थार मरुस्थल में पाई जाती है। Indian Spiny Tailed Lizard or Saraa hardwickii. गोल मुंह, चपटी थूथन, मटमैला भूरा रंग, पीठ पर काले धब्बे, झुर्रीदार खाल और हल्के नीले बैंगनी रंग की कांटेदार पूंछ इस शर्मीले सरीसृप को एक डरावना रुप देते हैं। दरअसल यह एक ठण्डे लहू का प्राणी है जो सर्दियों में 4 महीने जमीन के नीचे शीत-निद्रा में रहती है। इसी शीत-निद्रा के लिए साण्डा अपनी पूंछ में चर्बी जमा कर लेता है और यही चर्बी इस की मौत का कारण है। न तो ईश्वर ने इसे विष ग्रन्थि दी है और न ही विष दन्त। अरे इस बेचारे के मुंह में तो दांत भी नहीं हैं। और तो और यह छिपकली भारत की अकेली शाकाहारी है जो पत्ते खाती है। कभी कन्नौज (उत्तर प्रदेश) से ले कर संपूर्ण थार मरुस्थल, पाकिस्तान और कच्छ के रण तक इस का विस्तार था परन्तु अंधाधुंध शिकार ने इसे पश्चिमी थार तक सीमित कर दिया है। पाकिस्तान में तो लगभग समाप्त ही हो गई। पोखरण और महाजन में फैले सेना की चांदमारी के इलाके में ही फल फूल रही है। गरीब के लिए पेट की भूख मिटाने को मांस और अमीर के लिए वासना की आग बुझाने को कामोत्तेजक तेल और वो भी एक आसान शिकार से - लुप्त होने का सही नुस्खा। पहले अवैध शिकारी बिल में धुआं भर कर इन्हें आसानी से पकड़ लेते हैं। फिर पीठ पर डंडे से मार कर इस की रीढ़ की हड्डी तोड़ दी जाती है ताकि वह भाग न सके। 10-20 छिपकलियों को एक बोरे में भर कर सड़क के किनारे अपनी दुकान लगा लेते हैं। ग्राहक के आने पर इस अधमरे प्राणी को जिंदा ही सूखी और गर्म कड़ाही में डाल दिया जाता है जहां ये तड़प तड़प कर मर जाते हैं। पूंछ में जमा 5-10 ग्राम चर्बी पिघल जाती है जो शीशी में डाल कर बेची जाती है लिंग वर्धक और गुप्त रोगों की औषधि के नाम पर जब कि असल में यह दवाई है ही नहीं- इसमें होता है पॉली अन्सेच्युरेटेड फैटी एसिड। बचे हुए भुने मांस को या तो शिकारी खुद खा लेते हैं या उसे भी बेच देते हैं। यह अद्भुत प्राणी मरुस्थल इलाके के नाजुक पारितंत्र (Ecosystem) में पहले से कमजोर आहार श्रृंखला और अति जटिल जीवन चक्र का एक मजबूत हिस्सा है। रेतीली वनस्पति के विस्तार के साथ साथ बहुत से मरूस्थलीय स्तनधारियों और प्रवासी शिकारी पक्षियों का यह अकेला आहार है। आइए इस निरीह और लुप्तप्राय प्राणी को बचाने का प्रयास करें। मरुस्थल का पारितंत्र (Ecosystem) बहू मूल्य है। इसे भ्रान्तिपूर्ण कारणो से नष्ट न होने दें। जंगलकथा

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