न्याय प्रणाली -न्याय में देरी -एक पक्षीय न्याय
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हमारे देश की न्याय प्रणाली पर जनता का पूर्ण विश्वास है।
न्याय की सटीकता छोटे -बड़े का अंतर नहीं देखती। चाहे
आम आदमी हो या बड़ा आदमी हो या कोई बहुत बड़ा नेता
ही क्यों न हो ,जैसा अपराध -वैसा दण्ड उसको मिलता ही है।
इसी कारण बाहुबली -माफ़िया भी मुक़दमा दर्ज होने से बचते
हैं। क्योंकि उन्हें पता है की एक बार उनके अपराध पर यदि
मुकदमा दर्ज हो गया तो देर से ही सही लेकिन उसका अंजाम
उसे भुगतना ही पड़ेगा।
अब बात आती है न्याय में देरी की,यह भी बहुत बड़ी विडंबना
ही है की कई बार न्याय में देरी पीड़ित पक्ष के लिए अन्याय ही
बन जाती है। घरेलू मुकदमों का फैसला जब तक आता है तब
तक पीड़ित पक्ष आर्थिक रूप से और शारीरिक रूप से निपट
ही जाता है। बाहुबली और माफ़िया के मुकदमों की जल्दी से
सुनवाई नहीं होती। तारीख़े लम्बी -लम्बी लगवा दी जाती हैं।
बहुत देरी कर कभी -कभी फाइलें ही गुम हो जाती हैं या फिर
गुम करवा दी जाती हैं। यही हाल बड़े नेताओं के आपराधिक
मुकदमों का होता है। ऐसे में आम आदमी या पीड़ित पक्ष का
विश्वास न्याय प्रणाली से उठ जाता है। वह सोचने लगता है की
धनपतियों का कुछ नहीं बिगड़ता ,जबकि आम आदमी की
गलती पर पुलिस उसे एक दम उठा भी ले जाती है और जेल
में भी डाल देती है और उसकी सुनवाई भी नहीं होती।
२१ साल बाद आतंकी टुंडा को दोषी पाया गया। उसे सज़ा
सुनाई गई। अब सोचो जरा की पिछले २१ सालों में सरकार
का कितना खर्च टुंडा पर हुआ होगा ?शायद उसकी किसी
बीमारी का लम्बा ईलाज भी चला। यह सब खर्च बच जाता
यदि जल्दी उसका फ़ैसला आ जाता। इसी प्रकार सन २००२
में गुजरात के गोधरा काण्ड का फैसला अब सुनाया गया।
२७ फरवरी २००२ को साबरमती एक्सप्रेस के एस ६ कोच
में अयोध्या से कार सेवा कर लौट रहे ५९ कर सेवकों को
जलाकर मार दिया गया था। १५ साल से ज्यादा चले मुकदमें
के फैसले में ६३ को सबूतों के अभाव में बरी कर दिया गया
२० मुज़रिमों को उम्र कैद की सज़ा मिली एवं जिन ११ दोषियों
को फाँसी की सज़ा मिली थी उसे सश्रम उम्र कैद में बदल
दिया गया। न्यायाधीश महोदय ने जो भी फैसला सुनाया वह
ठीक है लेकिन जिन परिवारों के लोग मरे उन्हें इतनी देरी
से हुआ यह फ़ैसला कितना भाया होगा इसका अंदाजा हम
सभी लगा सकते हैं। हालांकि मृतकों के परिवारों को भी
दस -दस लाख के मुआवज़े का एलान किया गया।
अब आती है बात एक पक्षीय न्याय की। सोशल मिडिया
पर इसकी बहुत चर्चा रहती है। जिसमें अक्सर त्योहारों
पर कोर्ट के फरमानों का जिक्र रहता है। देश में जातिवाद
की इन्तहा कारण ऐसे फ़रमान दूसरे पक्ष को न्याय प्रणाली
पर हमला करने का अवसर दे देते हैं। क्योंकि अक्सर कोर्ट
के फ़रमान हिंदू त्योहारों से जुड़े होते हैं इसीलिए फ़रमान से
पीड़ित पक्ष सोशल मिडिया पर अपनी भड़ास निकालता है।
होली पर कैसा रंग हो ,दही हांड़ी कितनी ऊंचाई पर हो ,
दीवाली पर पटाखों पर पाबंदी हो आदि कुछ फ़रमान हिन्दू
जनता के मन को पीड़ित करते हैं और फिर वे न्याय प्रणाली
पर पक्षपात का आरोप लगाते हुए कहते हैं की अन्य धर्म की
गलत बातों पर कोर्ट क्यों नहीं बोलता ?
दरअसल भारत देश की १२५ करोड़ जनता के लाखों मुक़दमें
दर्ज हैं और प्रतिदिन दर्ज हो रहे हैं। जबकि कचहरियों और
न्यायधीशों की संख्या मुक़ाबलेतन बहुत कम है। जिसका फायदा
अक्सर दोषी पक्ष ही उठता दिखाई देता है लम्बी -लम्बी तारीखें
मुकदमों की सच्चाई ही बदल देती हैं। ऐसे में कचहरियों की
संख्या में बढ़ोतरी होनी चाहिए। न्यायधीशों के खाली पदों की
रिक्तता भरनी चाहिये।
अब एक अहम बात भारत के जनमानस की जल्दी पूरी होनी
चाहिए की राम मन्दिर विवाद पर कोर्ट का फैसला जल्दी आना
चाहिये। --- सुनील जैन राना
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