* संविधान में हिन्दू *
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आज़ादी के ७० साल बाद भी देश में से जातिवाद कम होने की बजाय बढ़ता जा रहा है या यो कहिये की वोटों
की राजनीति के कारण बढ़ाया जा रहा है। नेतागण सत्ता प्राप्ति हेतू नये -नये हथकंडे अपना रहे हैं। बस किसी
भी तरह कुर्सी मिल जाए यही उद्देश्य रह गया है। अपने इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए जनता को जनता से
लड़वाया जा रहा है।
अल्पसंख्यक स्वरूप -आरक्षण का फायदा उससे निहित सम्पूर्ण जाति को ना मिला है और ना ही मिलेगा। सिर्फ
इन वर्गो की क्रीमी लेयर इसका फायदा उठा रही है। भविष्य में भी सिर्फ कुछ ही परिवारों को लगातार पदोन्नति
का फ़ायदा मिलता रहता है। बाकि पूरी कौम जहां की तहँ रह जाती है। यही नहीं बल्कि ऐसा भी देखने में आता
है की लाभार्थी अब ऊँचे पद पर आ जाने के बाद से अपने गांव -शहर -इलाके में भी जाना पसंद नहीं करता।
यही कारण है की अल्पसंख्यक /आरक्षण निहित जाति के भारतीय आज भी जस के तस हैं। इनके नेतागण भी
इनके उत्थान के लिए खास प्रयास नहीं करते। करोड़ो लोगो में से सिर्फ कुछ ही को नौकरी मिल पाती है। बाकि
सभी अपने हालात पर जीवित हैं।
अब बात करें बहुसंख्यक वर्ग की जिसे हिंदू भी कहा जाता है। अज़ीब हाल है इनका। अनेकों जातियों में बटा
हिंदू समुदाय कहीं का भी ना रहा। जातियों के अनुसार देंखे तो इनकी संख्या आरक्षित जाति और अल्पसंख्यक
जातियों की संख्या से भी कम हो सकती है।
इस हिसाब से हिन्दुओं में निहित सभी जातियां अल्पसंख्यक /आरक्षण के दायरे में आ सकती हैं ?सरकार को
इस पर विचार भी करना ही चाहिए। आज ज्वलंत राजनीति के कारण अपने फायदे के लिए जातियों में बांटकर
आपस में ही लड़वाया जा रहा है। ऐसा होना देश की एकता के लिए बहुत घातक हो सकता है।
सरकार को चाहिये आरक्षण को आर्थिक आधार पर दिया जाये ताकि ग़रीब और ग़रीबी से निचले तबके को
उसका फायदा मिले। बहुसंख्यक में निहित सभी छोटी -छोटी जातियों को अल्पसंख्यक स्वरूप प्रदान करें
जिससे सभी के साथ समानता का व्यवहार हो सके। सरकार की नीतियों से सभी लाभन्वित हो सकें।
ऐसा करने से जातिवाद का भेदभाव कम होगा। सभी समान रूप से रह सकेंगे। नेताओं को जातिवादी राजनीति
छोड़कर जनहित में रचनात्मक राजनीति करने को मजबूर होना पड़ेगा। *सुनील जैन राना *
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