मंगलवार, 12 जुलाई 2022

तब और अब

Sunita Vyas आज से चालीस-पैतालिस साल पहले की बात बतलाऊँ। तब अमीर भी इतने अमीर नहीं होते थे कि एकदम अलग-थलग हो जावें। अपना लोटा-थाली अलग लेकर चलें। पंगत में सब साथ ही जीमते थे। मिठाइयों की दुकान पर वही चार मिठाइयाँ थीं, बच्चों के लिए ले-देकर वही चंद खिलौने थे। जब बाज़ार ही नहीं होगा तो करोड़पति भी क्या ख़रीद लेगा? अमीर से अमीर आदमी भी तब दूरदर्शन पर हफ्ते में दो बार रामायण, तीन बार चित्रहार और नौ बार समाचार नहीं देख सकता था, क्योंकि आते ही नहीं थे। देखें तो उस ज़माने में तक़रीबन सभी एक जैसे ग़रीब-ग़ुरबे थे। सभी साइकिल से चलते थे। कोई एक तीस मार ख़ां स्कूटर से चलता होगा। हर घर में टीवी टेलीफोन नहीं थे। फ्रिज तो लखपतियों के यहां होते, जो शरबत में बर्फ़ डालकर पीते तो सब देखकर डाह करते। लोग एक पतलून को सालों-साल पहनते और फटी पतलून के झोले बना लेते। चप्पलें चिंदी-चिंदी होने तक घिसी जातीं। कोई लाटसाहब नहीं था। सब ज़िंदगी के कारख़ाने के मज़दूर थे। जीवन जीवन जैसा ही था, जीवन संघर्ष है ऐसा तब लगता नहीं था। दुनिया छोटी थी। समय अपार था। दोपहरें काटे नहीं कटतीं। पढ़ने को एक उपन्यास का मिल जाना बड़ी दौलत थी। दूरदर्शन पर कोई फ़िल्म चल जाए तो सब चाव से बाड़े में दरी बिछाकर देखते। सूचनाएँ कहीं नहीं थीं, सिवाय पुस्तकों के, और पुस्तकें केवल वाचनालयों में मिल सकती थीं। चीज़ें सरल थीं। सपने संतरे की गोलियों से बड़े न थे। छुपम-छुपई खेलते, रेडियो सुनते, कैसेट भराते, सड़क पर टायर दौड़ाते दिन बीत जाते थे। शहर में मेला लगता तो रोमांच से सब उफन पड़ते। मेला देखना त्योहार था। टॉकिज में पिक्चर देखने, फ़ोटो खिंचाने के लिए लोग सज-सँवरकर तैयार होकर घर से निकलते थे। एक अलग ही भोलापन सबके दिल में था। उस दुनिया के क़िस्से सुनाओ तो लगता है वो कितने मुश्किल दिन थे। उस वक़्त तो कभी लगा नहीं कि ये मुश्किल दिन हैं। मुश्किल दिन तो ये आज के हैं, जो समझ ही नहीं आते। इनके मायने ही नहीं बूझते। हिरन जैसा मन दिनभर यहाँ-वहाँ डोलता है और उसकी प्यास ही नहीं मिटती। कोई नहीं जानता किसको क्या चाहिए। युग की वृत्ति के विपरीत बात कह रहा हूँ किन्तु सोचकर कहता हूँ कि दीनता और अभाव में सुख है, या एक प्रशान्त क़िस्म का संतोष कह लें। मन को बहुत सारे विकल्प चाहिए, उन विकल्पों में ख़ुद को भरमाना, उलझाना, अनिर्णय में रहना उसको अच्छा लगता है। जबकि देह की ज़रूरतें ज़्यादा नहीं और वो पूर जावें तो आत्मा भी देह में प्रकृतिस्थ रहती है। अधिक आवश्यकता होती नहीं है। बचे हुए भोजन को सुधारकर फिर खाने योग्य बना लेने में सुख है। पुराने वस्त्रों में पैबंद लगाकर उन्हें फिर चला लेने में। स्मरण रहे, यह सब इसलिए नहीं कि धन का अभाव है या चीज़ों की कोई कमी है। दुकानें लदी पड़ी हैं चीज़ों से। किन्तु मन को बाँधना ज़रूरी है। इसे बेलगाम छोड़ा कि आप भरमाए। इधर जब से बाज़ार चीज़ों से भर गए हैं, विषाद सौ गुना बढ़ गया। बाज़ार रचे ही इसलिए गए हैं कि अव्वल वो मनुष्य में नई-नई इच्छाएँ पैदा करें, और दूसरे उन इच्छाओं को पूरा करने के सौ विकल्प आपको दें। कपड़ों की दुकान पर चले जाएँ, हज़ार तरह के विकल्प। मिठाइयों की दुकान पर हज़ार पकवान। जूतों की दुकान पर हज़ार ब्रांड। पढ़ने को हज़ार किताबें और देखने को हज़ार फ़िल्में। सब तो कोई भोग न सकेगा और कोई धन्नासेठ भोग ले तो रस न पा सकेगा। एकरसता एक समय के बाद भली लगने लगती है। जब भूमण्डलीकरण शुरू हुआ था, तब सब एकरसता से ऊबे हुए थे और बड़ी विकलता से विकल्पों की तरफ़ गए। अब उस परिघटना को तीस-इकतीस साल पूरे हो गए। अब कालान्तर होना चाहिए। अनुभव से कहता हूँ परिग्रह दु:ख ही देता है। मैंने इससे भरसक स्वयं को बचाए रखा- जूते-कपड़े-सामान कम ही रखे- किन्तु पुस्तकों का बहुत परिग्रह किया है, और भले वो सात्विक वृत्ति का संयोजन हो किन्तु उसमें भी क्लेश है। एक बार में एक ही पुस्तक पढ़ी जा सकती है, किन्तु हज़ार पुस्तकें पढ़ी जाने को हों तो मन उधर दौड़ता है। ये मन की दौड़ ही दु:ख का कारण है। वाचनालयों के वो दिन याद आते हैं, जब एक पुस्तक आप इशू कराकर लाते थे और महीना-पखवाड़ा उसी के साथ बिताते थे। उस ज़माने में तो किसी को कोई पत्रिका कहीं से मिल जावे तो बड़े चाव से पढ़ता था। अख़बार तक नियमपूर्वक आद्योपान्त बाँचे जाते थे। इसी से कहता हूँ कि हर वो वृत्ति जो कहती है कि खाने को बहुत है, पहनने को बहुत है, पढ़ने को बहुत है, वो बड़ा कष्ट देने वाली है। जब पूरी पृथ्वी रिक्त थी, तब भी मनुज अपनी देह के आकार से अधिक जगह पर नहीं सो जाते थे। हाँ, मन का आकार बेमाप है। इस कस्तूरी मृग के बहकावे में जो आया, सो वन-प्रान्तर भटका, दिशा भूला, देश छूटा, विपथ ही हुआ जानो। इसकी लगाम कसना ही सबसे बड़ी कला है, बाक़ी कलाएँ पीछे आती हैं। साभार अग्रेषित

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