पराली नहीं होगी पराई http://suniljainrana.blogspot.com/
November 6, 2019 • सुनील जैन राना
किसान के खेतो में जलाई जा रही पराली जी का जंजाल बन गई है। हरियाणा -पंजाब के खेतो में जलाई जा रही पराली से देश की राजधानी सबसे ज्यादा प्रभावित हो रही है। दिल्ली और आसपास के इलाको में प्रदूषण का स्तर अधिकतम सीमा को भी पार कर गया है। सड़को पर सर्दी में पड़ने वाली धुंध से भी ज्यादा धुँआ -कोहरा सा छाया है। आम आदमी भी इस प्रदूषण से बहुत चिंतित है। बच्चे -जवान -बूढ़े सभी इस धुँए की चपेट में बीमार हो रहे हैं।
दरअसल वैसे तो पराली बिक जाती है लेकिन आधुनिकता की दौड़ में अब फसलों की कटाई मशीनों से होने लगी है। हाथ से कटाई में तो फसल पूरी जड़ से काटी जाती थी लेकिन मशीन से फसल की कटाई थोड़े ऊपर से होती है। हार्वेस्टर मशीन से कटाई करने पर फसल का कुछ भाग ऊपर रह जाता है। ऐसे में किसान उसे हाथ से न हटाकर अपने खेतो में आग लगा देते हैं जिसके कारण दूर दूर तक धुँआ फैल रहा है। किसान यह भी नहीं सोच रहे की खेत में पराली जलाने से धरती में लाभकारी कीट -केंचुए आदि भी जल कर मर रहे हैं। जिससे धरती में उपजाऊ पन कम हो रहा है और पाप के भागीदार भी बन रहे हैं।
हालांकि आज भी अधिकांश पराली काम में आ रही है या बिक रही है फिर भी यदि किसान और सरकार मिलकर तकनीकी आधार से कार्य करें तो दोनों को प्रालि से मुनाफा भी हो सकता है और प्रदूषण से मुक्ति भी मिल सकती है। पराली के टाईट बंडल बनाने के उपक्रम लगे जैसे रुई के बंडल बनते हैं। ऐसा होने से पराली कम जगह घेरेगी और बड़े प्लांटों में जलाने के काम आयेगी। कुछ जगह पराली से डिस्पोजल बर्तन बनने शुरू हो गए हैं जो प्लास्टिक का विकल्प बन सकते हैं। पिछले दिनों जमशेदपुर में पुराल की डंडी और कोयले से ईको फ्रेंडली टूथ ब्रश बनाने की बात भी मिडिया में आयी थी।
कहने का तातपर्य यह है की यदि किसान और सरकार मिलकर प्रालि के विभिन्न आयामों पर शोध करें तो अच्छे परिणाम सामने आ सकते हैं। हो सकता है की आज दुःख देने वाली पराली कल खुशियां लेकर आये। * सुनील जैन राना *
दरअसल वैसे तो पराली बिक जाती है लेकिन आधुनिकता की दौड़ में अब फसलों की कटाई मशीनों से होने लगी है। हाथ से कटाई में तो फसल पूरी जड़ से काटी जाती थी लेकिन मशीन से फसल की कटाई थोड़े ऊपर से होती है। हार्वेस्टर मशीन से कटाई करने पर फसल का कुछ भाग ऊपर रह जाता है। ऐसे में किसान उसे हाथ से न हटाकर अपने खेतो में आग लगा देते हैं जिसके कारण दूर दूर तक धुँआ फैल रहा है। किसान यह भी नहीं सोच रहे की खेत में पराली जलाने से धरती में लाभकारी कीट -केंचुए आदि भी जल कर मर रहे हैं। जिससे धरती में उपजाऊ पन कम हो रहा है और पाप के भागीदार भी बन रहे हैं।
हालांकि आज भी अधिकांश पराली काम में आ रही है या बिक रही है फिर भी यदि किसान और सरकार मिलकर तकनीकी आधार से कार्य करें तो दोनों को प्रालि से मुनाफा भी हो सकता है और प्रदूषण से मुक्ति भी मिल सकती है। पराली के टाईट बंडल बनाने के उपक्रम लगे जैसे रुई के बंडल बनते हैं। ऐसा होने से पराली कम जगह घेरेगी और बड़े प्लांटों में जलाने के काम आयेगी। कुछ जगह पराली से डिस्पोजल बर्तन बनने शुरू हो गए हैं जो प्लास्टिक का विकल्प बन सकते हैं। पिछले दिनों जमशेदपुर में पुराल की डंडी और कोयले से ईको फ्रेंडली टूथ ब्रश बनाने की बात भी मिडिया में आयी थी।
कहने का तातपर्य यह है की यदि किसान और सरकार मिलकर प्रालि के विभिन्न आयामों पर शोध करें तो अच्छे परिणाम सामने आ सकते हैं। हो सकता है की आज दुःख देने वाली पराली कल खुशियां लेकर आये। * सुनील जैन राना *
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