विदेशी संस्कृति भारत में क्यों ?
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अंग्रेज चले गए लेकिन अपनी परिपाटियाँ छोड़ गए। भारतीय संस्कृति में कुछ अच्छे रिवाजों को दिवस के रूप में
मनाते हैं। भारतीय संस्कृति की पहचान सम्पूर्ण विश्व में अपनी छाप छोड़ती है।
लेकिन हम भारतीयों की विडंबना है की हम अपनी संस्कृति भूल रहे हैं और विदेशी संस्कृति को अपनाने की
होड़ में लग जाते हैं। बच्चे या कम पढ़े लिखे ही नहीं बल्कि बड़े -बड़े साहित्यकार भी इस विदेशी गंगा की
संस्कृति में डुबकी मारते दिखाई जाते हैं।
आज फ़ादर्स डे है ,कुछ दिन पहले मदर्स डे मनाया गया था। समझ में नहीं आता की अपने माता -पिता को
याद करने के लिए हमे साल एक ही दिन काफ़ी है क्या ? हमारी भारतीय संस्कृति में जहां पग -पग पर माता -
पिता के बिना जीवन अधूरा रहता है ऐसे में साल के सिर्फ एक दिन उनको याद करना दुर्भाग्यपूर्ण ही कहलायेगा।
साल में एक दिन तो पितरों का श्राद मनाया जाता है। माता -पिता तो जीवन के हर पल हमारे मार्ग दर्शक होते हैं।
किसी के लिए विशेष दिन डे मनाना तो विदेशी संस्कृति है। विदेशों में संगठित परिवार नहीं होते। ब्याह -शादी
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का गठबंधन स्थाई नहीं होता। बच्चों की कभी माँ बदल जाती है तो कभी बाप बदल जाता है। ऐसे में बिछड़े माँ
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बाप ,भाई -बहन ,बेटी आदि से मिलने को साल में एक दिन वह भी अपनी सुहलियत के हिसाब से यानि जैसे
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आज जून के तीसरे रविवार को फ़ादर्स दे मना लिया। इसमें दिन अपनी सुहलियत से रख लिया तारीख़ बदल
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जाये तो कोई बात नहीं। ऐसी होती है विदेशी संस्कृति।
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हम भारतीयों को इन सब विदेशी बातों से बचना चाहिए। हमारी संस्कृति ही हमारी विरासत है। हमे उसे ही आगे
बढ़ाना चाहिये। अपने बच्चों को भी यह सब बताना चाहिये बल्कि अब तो स्कूलों के पाठयक्रम में यह सब पढ़ाया
जाना चाहिये। * सुनील जैन राना *,छत्ता जम्बू दास ,सहारनपुर -२४७००१ ,भारत
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